तराशनी थी वो दांत खाई पेंसिल जो दिन दिन मेज पर झेंप से रगड़ती भोथरी हुई / बदलना था वो चश्में का कांच जिसे रास्तों की धूल ने धुंधला किया / जलानी थी वही जोत जो हवाओं में दहक पा न सकी / बहुत कुछ बहुत बहुत कुछ / और...
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जब २६ जनवरी १९५० को लिखी गयी एक मोटी पोथी का १९वाँ अनुच्छेद धुंधला पड़ने लगे और लोकतंत्र की एक संरचना में इतना कम लोकतंत्र बचे कि आँखों पर चढ़े चश्में का कांच सरकारी तस्वीर के अलावा कुछ भी देखने से मना कर दे तो ज़ेहन के पत्थर पर अपनी भाषा और कलम की धार कुछ लोग तेज करते ही हैं जबकि यही एक स्थिर और जड़ संरचना का अतिवाद होता है, लोकतंत्र को पूरा का पूरा मांगना.
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जब २ ६ जनवरी १ ९ ५ ० को लिखी गयी एक मोटी पोथी का १ ९ वाँ अनुच्छेद धुंधला पड़ने लगे और लोकतंत्र की एक संरचना में इतना कम लोकतंत्र बचे कि आँखों पर चढ़े चश्में का कांच सरकारी तस्वीर के अलावा कुछ भी देखने से मना कर दे तो ज़ेहन के पत्थर पर अपनी भाषा और कलम की धार कुछ लोग तेज करते ही हैं जबकि यही एक स्थिर और जड़ संरचना का अतिवाद होता है, लोकतंत्र को पूरा का पूरा मांगना.